संतति / विकास पाण्डेय
पाँव पर अपने खड़े हो गए,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
बालक बिन जीवन था खाली,
जैसे बिन फूलों की डाली।
जब घर में गूँजी किलकारी,
मिल गयी जैसे खुशियाँ सारी।
दुखड़े सारे परे हो गए,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
खेल खेल में बच्चा बोला,
ले आऊँग उड़न-खटोला।
मम्मी-पापा को बैठाकर,
लाऊँगा मैं देश घुमाकर।
हृदय भाव से भरे हो गए,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
सुखमय जीवन की अभिलाषा,
बच्चों को हीरे-सा तराशा।
पिता ने की दिन रात कमाई,
पूर्ण हुई बच्चों की पढ़ाई।
सोना जैसे खरे हो गए,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
बहुत दीर्घ यह सफ़र रहा था,
तिनका-तिनका सँवर रहा था।
यूँ ही नहीं बना है घर यह,
प्रतिदिन बना है आठ पहर यह।
स्मृति-पत्र सब हरे हो गये,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
आसमान से ऊँचे सपने,
पीछा करते छूटे अपने।
परदेश को अपना ठौर बनाया
माँ-बाप को गैर बनाया।
शब्द पुत्र के कड़े हो गए,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
माँ जी का जंजाल हो गयी,
परित्यक्त रही, कंकाल हो गयी।
धन-अर्जन में इतना डूबे
धनलोलुपता काल हो गयी।
संस्कार तो मुर्दे गड़े हो गए,
अब तो बच्चे बड़े हो गए।
ऐसा कभी न होने देना,
सुख देना मत रोने देना।
कदापि माता और पिता को
यह पीड़ा मत होने देना
कि दिन अब काँटों जड़े हो गए।
अब तो बच्चे बड़े हो गए।