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संबंध / मल्लिका मुखर्जी

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मेरे आँसुओ,
मेरे चिर-परिचित साथियो !
नयनो की अतल गहराई में डेरा डाले
गुमसुम पड़े रहते हो तुम !
मेरे हृदय की धरती पर जब
कराहने लगती हैं व्यथाएँ
अकाल बनकर,
तब रूप धर सैलाब का
चले आते हो तुम
मेरे नयनों के धरातल पर !
तुम्हें रोकने की कोशिश में
टूट जाते हैं
मेरी नाज़ुक पलकों के किनारे,
पर विचलित नहीं होती हूँ मैं !

किन्हीं कोमल हाथों का
शीतल स्पर्श पाने को तरसते
उन तपते सहरा-से मेरे गालों पर
बहने लगते हो तुम ।
तुम्हारी ऊष्मा से ही सही
व्यथाओं का धधकता अंगार
जब बुझ जाता है,
मेरे आकुल हृदय की धरती पर
फिर से पनपती है
उपजाऊ ज़मीन और
मैं बुनने लगती हूँ सपना
फिर एक नई फ़सल उगाने का !