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संवादों के पुल / गीता शर्मा बित्थारिया

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आंखों से होकर मन के द्वारे
चढ़ते उतरते
कथा कहानी कविता रचते हैं
तेरी मेरी कही अनकही
बातों से ही तो बनते हैं
संवादों के पुल

नर्म मुलायम बातों की
चिकनी मिट्टी के गाढ़े गारे से
सहज प्रेम की बुनियादें भरते
नवनिर्मित या पुरातन
रिश्तों की मजबूत पकड़ को
कितने बुनियादी होते हैं
संवादों के पुल

भूली बिसरी यादों की पगडंडी पर
कभी वृक्षों से लम्बे तनते
फिर अनायास ही
भीनी खुशबू से पगे हुये
फूलों को चुनते
सावन भादों के बिन कहे ही
बरस बरस पड़ते हैं
मन आंगन को स्निग्ध करते हैं
संवादों के पुल

चांदनी में भीगी मधुमालती के तले
पुराने प्रेम प्रसंगों से निर्झर झरते
अहसासों के स्पर्शों के पावस पाश में
संदली वन में चहल कदमी करते
स्मृतियों के आंगन में खुलते
वातायन ही तो होते हैं
संवादों के पुल

बचपन की साथी टोली से
शरारतों भरी आँख मिचौली में
कन्चे गिल्ली की धमाचौकडी
कोलाहल मस्ती भरते
गुड़िया की सगाई के
पकवानों से मीठे और रसीले होते हैं
संवादों के पुल

रामायण के आख्यानों से लेकर
राजा रानी परियों की कथा कहानी तक
दादी नानी की बातों से बनते
कार्तिक माह के पुण्य सलिला गंगा में अवगाहन से होते हैं
संवादों के पुल

सर्द ऋतु सी निशब्द रात्रि में
जड़ नीरवता को ओढ़े बैठे संबंधो में
सम्वेदनाओं के अलाव जलाते,
मौन तोड़ते, उम्मीदों के फूल खिलाते
कितने आवश्यक होते हैं
संवादों के पुल