संवेदन / विजय कुमार देव
शब्द कैसे कहेगा
सच-सच अर्थ
अपने होने का बोध
कैसे गढ़ेगा सर्जना में
जबकी
बार-बार मुकर रहा है
हमेश लहलहाने वाला आपका संवेदन
दुरुस्त कर लो सभी
अपने संवेदन-तंत्र
कि अभी आदमी की पूर्णता का
महोत्सव संभव है
शोषक या शोषित
परस्पर का
कहीं भी, किसी एक का
कहीं भी, किसी दुसरे से
मुकर जाता है- संवेदन
शोषित से शोषक
या शोषक से सर्वहारा
बनता है जब कोई
कहीं भी तो फर्क नहीं
सहने या ढाने में
फर्क नहीं पड़ता कि
किसके पास आग है या पानी
दोनों ही हानि कारक हैं
जब उतरते हैं शब्दों में -
लाशों से ज्यादा बयान
शाया होते हैं अख़बारों में
वहाँ कहाँ जीवित -संवेदना
शब्द होते है --
वक्तव्यों के पुल होते हैं
पर नही होता ह्रदय और विचार
सिर्फ एक अदद लालच
शाया होने का
खोखला शेष है संवेदन
बचाओ पत्ते पर पड़ी ओस की बूँद
इतनी गुंजाइश तो करो वर्ना
सदी बीत रही है