सखिया / निधि सक्सेना
सखी री
उस दिन तुम्हारे घर
तुमने अपने हाथ का बना कटहल का अचार
बरनी में डाल कर देते हुये मुझसे कहा
इसे सुदामा की तुच्छ भेंट समझो...
उस वक्त बात उपहास में टार दी थी
परंतु कितने ही भाव उमड़ गए थे मन में...
और जब तुम्हारे हाथ का वो अचार
ज़बान पर रखा
सच कहूँ लगा मैं सुदामा हो गई हूँ
कृष्ण का दरबार सजा है
और वे अपने हाथों से मुझे छप्पन तरह के भोज करा रहे हैं...
समय नश्वर हो गया है...
सखी तुम्हारे हाथ में बिलकुल माँ के हाथों का स्वाद है ...
लगा कि किसी योग से हम पुनः किशोरी हो गए हैं
वो अचार पराठे...
वो बारिशों में भीगना...
वो छोटी सी लूना...
वक्त का प्रचंड प्रवाह
और तिनके से हम...
जब तुमने उस दिन स्वयं को सुदामा कहा
न जाने क्या घटा कि बरबस इच्छा हुई
कि निमिष के हजारवें हिस्से को ही सही
मैं किसी तरह कृष्ण हो जाऊँ
तुम्हें अंक में भर कर
तुम पर अगाध स्नेह से बरस जाऊँ...
परंतु सखिया मेरी
हम तो दोनों ही एक दूसरे के लिये परस्पर सुदामा भी हैं
और कृष्ण भी...
हम तो उन क्षणों के हमसफ़र हैं
जब सखा की निकटता सबसे वांछनीय होती है...
एक दूसरे के मन का बोझ उतारने
एक दूसरे को मिठास देने
एक दूसरे के यहाँ पहुँचते हैं...
और हाँ उस वक्त अपनी संवेदना
सघनता और आत्मीयता से
भाव विभोर सी राधाएँ हो जाते हैं...