भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सखि, अभी कहाँ से रात, अभी तो अंबर लाली / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सखि, अभी कहाँ से रात, अभी तो अंबर लाली।

पर अभी नहीं चिड़ियों ने अपने
नीड़ों को मोड़े,
हंसों ने लहरों के अंचल-पट
अभी नहीं छोड़े,
जोड़े कलियों के अधरों से हैं अधर
भँवर अब भी,
सखि, अभी कहाँ से रात, अभी तो अंबर लाली।

जाता फिर मंद पवन लतिका
की लट सहलाता है,
केवल मुझको मालूम मज़ा
जो उसको आता है,
संध्या दिन की बाहों में अटकी,
भटकी, भूली-सी,
जाने की मुश्किल रुकने की मुश्किल में मतवाली।
सखि, अभी कहाँ से रात, अभी तो अंबर लाली।