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सखि रहि-रहि टीसै छै प्राण गे / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

सखि रहि-रहि टीसै छै प्राण गे

यादोॅ में केकरोॅ नै सुतलौं ई रात
टुकुर टुकुर ताकै में होय गेलैं प्रात
टारी पर बैठी काग करै काँव-काँव
कहियो केॅ ऐलै नै पिया मोरा गाँव
लागै लोरोॅ सें छै उबडूब विहान रे

रात के परात में हाँसै छै चान
कंठोॅ में अटकी केॅ बचलोॅ छैं प्राण
हरी घुरी खोजै छै हुनके ही छाँव
खोजी केॅ थकलौं हमें पिया केरोॅ गाँव
हाय टूटी गेलै हिरनी के मान रे

राखियोॅ तोंय प्रेमोॅ केॅ बनले अहिवात
मने में रहि गेलै मनोॅ केरोॅ बात
निर्दय जुआनी चाहै हरदम सिंगार
मानियो नै मानै छै ई आपनोॅ हार
जिनगी भै गेलै पाषाण रे