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सखी री! मैं तो प्रीतम के गुन गाऊँगी / स्वामी सनातनदेव

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राग बहार, कहरवा 8.7.1974

<ref>सखी री!</ref> मैं तो प्रीतम के गुन गाऊँगी।
गाय-गाय अति चाव-भावसों प्रीतम रसिक रिझाऊँगी।
रीझ पाय अपने प्रीतम को मनमें ठसक<ref>अभिमान, सुख-सम्पत्ति</ref> न लाऊँगी॥
उनही की रति में रत रह नित जिय की कसक मिटाऊँगी॥1॥
मेरे प्रीतम बड़े खिलाड़ी उनहिं न कबहुँ खिझाऊँगी।
सुख-दुख जो कछु देहिं खेल में वह सब सीस चढ़ाऊँगी॥2॥
सुख में रीझ ठठोली<ref>मजाक, हँसी</ref> दुख में देखि-देखि सचुपाऊँगी।
प्रीतम की जो जैसी रुचि हो निज रुचि वही बनाऊँगी॥3॥
कोउ सन्त कोउ मन्द कहै तो मन में मैल न लाऊँगी।
निन्दा स्तुति दोउ में समान रह सबसों प्रीति बढ़ाऊँगी॥4॥
मेरे प्रीतम बसे सभी में, फिर मैं क्यों घबराऊँगी।
सब में झाँकी करि मोहन की मोह न मन में लाऊँगी॥5॥
सब विधि प्रीतम की ही ह्वै मैं निजता कोउ न पाऊँगी।
प्रियता में ही निजता खो बस प्रियता ही रह जाऊँगी॥6॥

शब्दार्थ
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