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सचमुच शहर मदारी है / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

सब कुछ बदला यहाँ गॉंव में
यह नारा सरकारी है
पहले था गर्दन पर फंदा
अब गर्दन पर आरी है

साहूकार खड़े रहते थे
तन कर अपनी छाती पर
मुहर लगी है आज बैंक की
पुरखों वाली थाती पर
कर्जे के मुंह निगला जाना
ख्ेातों की लाचारी है
बनी रही पगडंडी जब तक
तब तक तो सब अच्छा था
रीति-नीति थी, लोक-लाज थी
बच्चा-बच्चा सच्चा था
सड़कें लाईं, जादू टोना
सचमुच शहर मदारी है

बॉंची जाती थी रामायणश्
पावन सॉंझ-सकारे थे
अनाचार के हाथों लज्जा
होती रोज उधारी है

बदल गई हो चौसर चाहे
पॉेसे वही पुरान हैं
गंगू के घर पहले दुख था
सुख अब भी बेगाने हैं
मुखिया घर घर पूजा जाता
जैसे वह अवतारी है