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सच ! क्या हो गया है मुझे / जय छांछा
Kavita Kosh से
सच ! क्या हो गया है मुझे
इन दिनों !
पता नहीं क्यों
तुम्हारी मुस्कुराहट को
महिना, वर्ष और दशक से गुणा करने का मन होता है
मेरा मन मोबाइल फ़ोन उठाकर
सेटलाइट में मिश्रित होकर आने वाली
तुम्हारे स्वर की प्रतीक्षा में तड़पता है ।
सच ! क्या हो गया है मुझे
इन दिनों !
तुम्हारे स्वर के लिए
मन चुपचाप इंद्रधनुषी रंग में परिणत हो जाता है
रास्ते में इधर-उधर फैले पेड़ बनकर
तुम्हारे स्वागत को रहता है हरदम तैयार
आँखें खुली रहती हैं सदा
और, दोनों कान स्वागत द्वार हैं जैसे
फिर भी
न ही तुम सशरीर आई हो मेरे पास
और न ही तुम्हारी आवाज़ ।
सच ! क्या हो गया है मुझे
इन दिनों !
मूल नेपाली से अनुवाद : अर्जुन निराला