भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सच कह उनके लिए डर हो गए हम / सांवर दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच कह उनके लिए डर हो गए हम।
उनकी नज़रों में ज़हर हो गए हम।

जलसे में जब चली बात राशन की,
वहां लेकर भूख मुखर हो गए हम।

हरे चश्मे बंटते देखे जब वहां,
शीशा तोड़ते पत्थर हो गए हम!

हवा तक जब कैद होने लगी वहां,
ले सबको साथ बाहर हो गए हम।

कब तक नहीं टूटेंगे ये किनारे,
साथ जुड़ उछलती लहर हो गए हम!