सच बताने को तरसते हुए डर लगता है / विनय कुमार
सच बताने को तरसते हुए डर लगता है।
झूठ के पांव पर हँसतें हुए डर लगता है।
अपनी गलियों से गुज़रते हुए घबराता हूँ
अपने ही शहर में बसते हुए डर लगता है।
बुत से लड़ता था, ख़ुदाओं से बहस करता था
अब तो इक तंज़ भी कसते हुए डर लगता है।
धूप उजली है, मुलायम है मगर तेज़ाबी
धूप में जाके झुलसते हुए डर लगता है।
एक से एक नमूने हैं ज़हरज़ादों के
साँप को भी जिन्हें डसते हुए डर लगता है।
हार होती है सितमग़र की, पर नहीं होती
क्या फ़तह है कि हुलसते हुए डर लगता है।
हक़ चिरागों का मिला है शहर में मकड़ों को
अब पतंगों को भी फ़ँसते हुए डर लगता है।
मर गया हो तेरी आँखों का भी पानी न कहीं
झील सी आँख में धँसते हुए डर लगता है।
कैसे बादल में बदल सा गया हूँ मैं यारो
प्यासवालों पे बरसते हुए डर लगता है।