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सच बता… / सांवर दइया
Kavita Kosh से
कितना अच्छा था वह दिन
भेले ही अनजाने में लिखे थे
और अक्षर भी ढाई थे
लेकिन उनमें समाई दिखती थी
पूरी दुनिया
और आज
कितना स-तर्क होकर
रच रहा हूं पोथे पर पोथे
झलकता तक नहीं जिनमें
मन का कोई कोना
सच बता यार !
ऐसे में क्या जरूरी है मेरा कवि होना ?