भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सच से गर्दन बचाने से क्या फ़ायदा / सूरज राय 'सूरज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच से गर्दन बचाने से क्या फ़ायदा।
ऐसे सर और शाने से क्या फ़ायदा॥

जिसका मक़सद ही उंगली उठाना रहे
ऐसे बेहिस ज़माने से क्या फ़ायदा॥

बस गुणा-भाग ही जब मुक़द्दर में हो
जोड़ने ओ घटाने से क्या फ़ायदा॥

हाथ फैलाना जिसकी रवायत में हो
क़र्ज़ उसका चुकाने से क्या फ़ायदा॥

सामने जिसके हो सबकी आँखें झुकीं
ऐसे ऊंचे घराने से क्या फ़ायदा॥

जिस्म, सर, भूख़ उर्याँ न हों, है बहुत
इससे ज़्यादा कमाने से क्या फ़ायदा॥

हाथ सबके हैं मिर्चो-नमक से भरे
ज़ख़्म अपने दिखाने से क्या फ़ायदा॥

ये सियासत के डाकू-लुटेरों का है
इस मुहल्ले में थाने से क्या फ़ायदा॥

बाप का क़त्ल जिस लाडले ने किया
उसका मुंडन कराने से क्या फ़ायदा॥

जिसकी फ़ि तरत ही हो घुंघरुओं की तरह
उसको अपना बताने से क्या फ़ायदा॥

जो चिराग़ों की भी रोशनी से जले
ऐसा "सूरज" उगाने से क्या फ़ायदा॥