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सच से मुलाकात / अनुपमा तिवाड़ी

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साफ़-सुथरे सच,
मुझे याद है
जब तुम घनी भीड़ से निकलकर
आ खड़े होते थे
मेरे दरवाज़े पर
और बुलाते थे मुझे
बार-बार
मैं तो बस तुम्हें देख ही पाती थी
टुकुर-टुकुर!
सच, तुम जिन पंजों से घिरे थे
वे कालिख पुते को सच कहते थे
पर सच, मैं तुम्हें पहचान पा रही थी न!
भीड़ में भी, अकेले में भी
याद है हम कितना बतियाए थे
मन ही मन!
सच, तुम्हारे पास आने का मतलब था
हौंसले से लबालब होना
जो मुझमें किसी राख के ढेर के नीचे दबे
अंगारे की तरह था
और ये सब तुम जानते थे न, सच!
तभी तो तुमने मेरे लिए बाहें फैला दीं
मैं तो चाहती ही थी कि तुमसे मिलूँ
देखो न,
तुमसे मिलकर मैं कितनी सुन्दर हो गई हूँ
अब शायद तुमसे अलग हो कर जी नहीं पाऊँगी
सच, पर तुम्हारा रास्ता बड़ा कठिन है यार!
मेरे तो कभी-कभी काँटे चुभ जाते हैं
और सुनो कभी-कभी तो आँसू भी आ जाते हैं