सच / वर्तिका नन्दा
कचनार की डाल पर
इसी मौसम में तो खिलते थे फूल
उस रंग का नाम
क़िताब में कहीं लिखा नहीं था
उस डाल पर एक झूला था
उस झूले में सपने थे
आसमान को छू लेने के
उस झूले में आस थी
किसी प्रेमी के आने की
उस झूले में बेताबी थी
आँचल में समाने की
पर उस झूले में सच तो था नहीं
झूले ने नहीं बताया
लड़की के सपने नहीं होते
नहीं होने चाहिए
उसे प्रेम नहीं मिलता
नहीं मिलना चाहिए
क़िताबी है यह और बेमानी भी
झूले ने कहाँ बताया
ज़िंदगी में अपमान होगा
और प्रताड़ना भी
देहरी के उस पार जाते ही
पति के हाथों, बेटों के हाथों
जहाँ छूटी अम्मा की देहरी
जामुन की तरह पिस जाएगी
यह फूलों की फ्रॉक
आइस्क्रीम खाने की तमन्ना
मचलने के मज़े
कोयल की कूक
तब बचेगी सिर्फ़
मन की हूक
और याद आएँगे
कचनार के झूले
किसी फ़िल्मी कहानी की तरह