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सजन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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यह कैसा झंझावत सजन!
अपना जीवन दिन सात सजन!

तुम आ न सके हो, जाने क्यों
फिर आ पहुँची बरसात सजन!

मन का झेला विद्रोह बहुत
हैं सहे याद के घात सजन!

खँडहर-सा लगता मन मन्दिर
हो चले जीर्ण सब गात सजन!

धरती से अम्बर तक तुम ही
हो ज्ञात किन्तु अज्ञात सजन!

जब आये थे तब आयी थी
सुरभित सुरभित मधुवात सजन!

लाली वह कभी न फिर देखी
देखे तो नित्य प्रभात सजन!

फिर कहाँ निर्झरित हो पाया
जीवन का मधुर प्रपात सजन!

फिर से ऋतु ने शृंगार किया
फिर हुई चन्द्रिका सनात सजन!

विष प्याले छूते रहे अधर,
तुम बने रहे सकुरात सजन!