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सड़क आईना है / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
स्वप्न जब
होने लगे बासी
सबेरा जागे
भय से काँपता
पसीना नफ़रत की धूप का
झेला हो जिस्म ने
दिन भर
तुम चीख़ कर विरोध करोगे या
हाथों में कुदाल लेकर
इतिहास से युद्ध का आह्वान!
एक अंधी सुरंग के
सन्नाटे में
अपनी ख़ामोशी की चीख़
सहना चाहोगे!
शीशे की ज़रूरत नहीं
पहचान के लिए
सड़क आईना है
रास्तों के अर्थ
क़दमों के निशां
कहीं बाक़ी नहीं!
सभी ने किया है यहाँ
इस्तेमाल सीढ़ी
छाती पीठ
कंधे का!
हरेक ने पा ली
तहख़ाने की चाबी
हाथों में लटके हैं सबके
अलग-अलग अंक
मील के पत्थर!
तय नहीं कर पा रहा मैं
आकाश की आँखें तलाशूँ
कर दूँ उसमें
सूराख
शीशा रखूँ सहेजकर
या कर दूँ न्यौछावर
सड़क पर!!