सतवाणी (18) / कन्हैया लाल सेठिया
171.
छयां न इन्छै रूंख पण
सूरज रो संजोग,
इंयां बंध्यो सुभ करम रै
लारै पुन रो जोग,
172.
मिलसी जड़ नै अरथ जद
जुड़सी चेतण सांस,
बण्यो किसन री बंसरी
निरथक थोथो बांस,
173.
जीव नांव ठाकर बडो
देह दुरग में वास,
चाकर पांच रूळेड़ मन
मरजीदान खवास,
174.
सबद तूंतड़ बो’र क्यूं
रूंधै कागद खेत ?
अै जाबक निरजीव है
आं नै गिटसी रेत,
175.
रीतो दिवलो सबद रो
नहीं भाव रो नेह,
बिन्यां दीठ-तूळी किंयां
जगमग करसी गेह?
176.
झूठो साचो के हुवै
धरम धरम है मूढ,
नहीं विसेसण सुणन में
आयी साची झूठ,
177.
जल स्यूं धरती नीसरी
अनल परगट्यो नीर,
नारायण रो सासरो
जल लिछमी रो पी’र,
178.
संसारी समबन्ध है
झीणां पून समार,
बणै किराणो केवट्यां
नहीं’स कचरै मान,
179.
बाजी सावण डोकरी
किंयां जलमतां पाण ?
खिण में बचपन जोबनो
जरा भोग ली लाण
180.
एक एक तिण चुग चिड़ी
लीन्यो आळो घाल,
बा छोटी पण नित बड़ी
लागी कती’क ताळ ?