सतवाणी (24) / कन्हैया लाल सेठिया
231.
नांव जपण रै वासतै
क्यूं छोडयो तू काम ?
जपै जकै श्री राम नै
बो रोप्यो संगराम,
232.
फूंक दियां दिवलो बुझ्यो
बो थारै आधीन,
सूरज कोनी बुझ सकै
जको आप स्वाधीन,
233.
उडै पंखेरू मोकळा
आवै पाछा चाल,
आभै में कोनी सकै
कोई आळा घाल,
234.
मोती मिणसी बो हुवै
जिण री निरमल दीठ,
सुच्छम दीसै कद तनै
डुंगर दीखै नीठ,
235.
देती मत फिर ओळमो
मत दै झूठी आळ,
कांई नांवैं के जमा
निज री बही संभाळ,
236.
खेल मती लुकमींचणी
निज स्यूं भोळा जीव,
रयो रमत में जीव तो
जासी आयो पीव,
237.
बोध्यो जका न ग्यान नै
आ ही देसी सीख,
कांईं करसी दीठ रो
पकड़यां बग तू लीक,
238.
रवै फूल में पांखड़यां
पण फळ एकमएक,
ज्यूं मंजल रै पंथ में
डगरयां मिलै अनेक,
239.
माया मिनखां स्यूं बड़ी
माया मायड़ तात,
परम पुरष री बीनणी
माया री के बात ?
240.
गांव भलो समझै तनैं
बात नहीं कीं खाय,
पाड़ोसी चोखो कवै
जणां करी विसवास,