सतवाणी (29) / कन्हैया लाल सेठिया
281.
ऊबो जठै अगूण है
सिरक्यां बो आथूंण,
आगै पाछै पग बिंयां
भुवैं गगन रो भूण,
282.
गांठ खुल्यां लांबी हुवै
ज्यूं उलझ्योड़ी डोर,
मन री गांठां खोल तू
डीघो बणसी और,
283.
गांव जठै गेला बठै
ढुकसी छेकड़ धाप,
समद नहीं नूंतै नद्यां
भाजी आवै आप,
284.
अगन धधकतो न्यावड़ो
घट री काची देह,
धिन कुमार रो काळजो
करै न आंधो नेह,
285.
जीवण कद निज में मजल
ओ तो मारग जीव,
आसंगा बैठो तकै
इयां न आवै सींव,
286.
छात गगन भू आंगणो
संजम री सुख सेज
पोढै बो ही राखसी
आतम मणी सहेज ?
287.
धुकसी लकड़ी एकली
कोनी पकड़ै आग,
समधरमी सागै हुयां
जागै राग विराग,
288.
तपै अंधेरै में दियो
निरभै मन में साध,
असुर होळका गोद में
बैठो ज्यूं परलाद,
289.
बिना पात्र जोगो हुयां
निरथक देणो बोध
सिंघण रै पय वासतै
ठांव कनक रो सोध,
290.
चावै करणी साधना
मत धारीजे भेख,
रह तू सहज अभेद बण
भेद बढावै धैख,