बालमीकी आश्रम में सीता
झोंङा पर झोंङोॅ फुललोॅ छै सागवान,
झक-झक गोरोॅ खटास।
खगलोॅ दानी राजारोॅ खाड़ोॅ छै,
आमोॅ के बिरबा उदास॥
पिरका कनेलोॅ में ढूकै छै, निकलै छै,
भमरा रासोॅ के रास।
तितलोॅ भिजलोॅ हवा ने खोलै छै,
रसें-रसें बाँसोॅ के फाँस॥
कुटिया-दुआरी पर मृग छौना खाड़ोॅ छै
घेरी केॅ सौंसे टा फाँक।
गाछी-तर ठमकी केॅ हरिना खुजाबै छै,
सींघी सें हरिनी के आँख।
निचलका मेघोॅ के कान्हा पर राखी केॅ,
नेहोॅ-अपनेती के हाथ।
ठहरी केॅ होमोॅ के धुआँ उचारै छै;
खेमोॅ के, कुशलोॅ के बात॥
मनोॅ में जेना की उमड़ै छै, घुमड़ै छै,
लब्बोॅ-पुरानोॅ बिचार।
तेन्है आकासोॅ में आबै छै, जाय छै
बादल-पर-बादल सबार॥
वेदी के काँथी पर बैठली बैदेही छै,
ताकै छै टक-टक आकास।
सुरता नै देहोॅ के, बेटी विदेहोॅ के;
भूलै छै, खींचैलेॅ साँस॥
आश्रम छै गुमसुम बटोहीनै, बासीनै,
सूनोॅ छै जंगल के बाट।
कोय गेल्छै लकड़ीलोॅ, कोय गेल्छै समिधालेॅ;
कोय गेल्छै पानी के घाट।
देरी सें तोड़ै छै चुप्पी केॅ, टपकी केॅ,
पातोॅ पर पातोॅ के बुन्द।
आँखी के कोरोॅ सें जेना बहराय छै;
धीरबती दुखिया के छन्द॥
झट दौड़ी मृग छौना एक्के कुलाँचोॅ में,
होय गेलै आँखी के पार।
अनचोके टहकारी उठलै अतीतोॅ में
भरी केॅ सिहरन हजार...
“सीता के समना में दण्डकवन आश्रम छै,
मनमोहक पंचवटी धाम।
पर्नकुटी लछुमन के हाथोॅ सें रचलोॅ ऊ;
छन्है-छन्है मुस्कै छै राम”
”फूलोॅ सें ढकमोरै लोॅत पात, गाछ-बिरिछ
गलबाँही तीनो टा बाव।
कमलोॅ सें कसकलोॅ पोखर-तालबोॅ में;
हँसोॅ के चकवा के चाव“॥
”आश्रम के आगूमें मखमलरै बिछलोॅ छै,
घासोॅ के हरियर मैदान।
पंछी के चुन-मुन सें, भमरा के गुन-गुन सें;
गुफा-द्वार भरलोॅ छै कान“॥
”सुरजोॅके लाल-साफ किरन-बान छुटलोॅछै
फुटलोॅ छै पातोॅके कोर
पीपर के पाकड़ के महुआ-परासोॅ के;
खैरोॅ के जामुन के पोर“॥
”अनचोके मृगा एक अजगुतरँ सोनाके
झारी सें निकली केॅ पास।
हरियर मैदानोॅ में आबोकेॅ मन्द-मन्द;
चालोॅ सें टोंगै छै घास“॥
”आश्रम के सब मृग-सब मृग छौना सुन्दर छै,
मजकी हौ सुन्दरता-खान।
ललचैलोॅ आँखी सें देखीकेॅ बिसरै छै;
देहोॅ के सुरता-धियान“॥
”लोभोॅ में आबी केॅ तपसी-सन्यासीं भी,
पापोॅ के सोचै उपाय।
सीताके निरलोभी मनोॅकेॅ मिरगां ने;
छन्है में लेलकै लोभाय“॥
”मृग-शावक आँखी में महिमा उड़ेलीकेॅ,
विनती के आनी केॅ भाव।
सीताँ निरजासैछै कमल-नयनरामोॅ केॅ;
हिरदय में मिरगा के चाव“॥
”घुँघरैलोॅ जटा-जूट शोभित छै माथा पर
गर्दन में शोभित जयमाल।
कुंडल छै कानोॅ में अजगुत शोभायमान
बक्षस्थल-बाहू-बिकराल“॥
पाछूमें तरकस छै मुनिवर अगस्तोॅके,
आश्रम सें मिललोॅ उपहार।
रूपनिधी सुन्दरता छनभर बिसरैने छै;
हिरदय सें सबटा बिचार“॥
”एकबेर देखीकेॅ रामोॅ केॅ ताकै छै;
मिरगा केॅ सीताँ ललचाय,
तबतक ऊ घास-पात छोड़ी केॅ सावधान
चललै कुलाँचें पराय“॥
”देखोॅ हौं सोना के मिरगा केॅ देखोॅनी,
कत्तेॅ छै सुन्दर अपरुप।
आनीद आश्रम में जल्दी सें आनीदेॅ
हे भगवान; हे प्रियतम भूप“॥
”सीता केॅ अकुलैलोॅ देखी केॅ रघुनन्दन,
भै गेलै व्याकुल-तैयार।
सोना के मिरगा के लोभेंने देॅ देलकै;
सीता केॅ सोना-संसार“॥
सँसरी केॅ आँखीसें, ऐलै कपोलोॅ पर
मोती के दाना अनजान।
भितरोॅ सें उफसीकेॅ छुटलोॅ निसासोॅ में
तैरै छै घड़ी, .... पोॅल.... जाम॥
काँटोॅ रं कसकै छै जिनगीके हिरदय में,
रही-रही सोना के श्राप।
सोना के लीनेॅ ने हरदम सहेजने छै;
सोनोॅ रं जिनगीमें पाप॥
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हहरैलोॅ हवा तेज पच्छिमसें ऐलै,
अनचोके घहरैलै आकास।
मेघोॅ सें मेघोॅ के झगड़ा में मुस्की केॅ
बिजली ने देलकै उजास।
डाहुक के साम-गान सोरोॅ के मधुर तान,
गूँजै छै जंगल-पहाड़।
पाँती में बगुलादल मेघोॅ तक जाय केॅ;
बिरचै छै स्वागत-संभार॥
बेदी सें उतरी केॅ कुटियातक आबैमें,
गुमसुम छै सीता मनझान।
झुमरी केॅ झिम-झिम-झिम धारा धर बरसै छै;
भजै छै जंगल के प्रान॥
कूसोॅ के कासोॅ के छपरी सें जेना की,
निकलै छै धूआँ के लार।
तैन्है केॅ समनाके पहड़ी धुँधुवाय छै;
लागै छै गुज-गुज अन्हार॥
झुकरै छै, झुकरीकेॅ झूपै छै सम्हरै छै,
कहु-सीमर, सखुआ, तमाल।
छितरैलोॅ जटा-जूट करिा आकासोॅ पर
धक्-धक्-धक्-धक्-धक्-धक् भाल॥
तड़-तड़-तड़ डमरूके डिम-डिम-डिम-डिम-डिमरं,
पातोॅ पर बुन्नी के घात।
ताण्डवरत प्रलयंकर जेना की धरनै छै;
सृष्टी के बुतरू पर लात॥
भितरोॅ सें भय-व्याकुल सीताने सिहरीकोॅ,
हाथोॅ सें मूनै छै आँख।
सिरजन के छन मानोॅ व्याधाने कतरै छै;
सृष्टी के पंछी के पाँख॥
सीता ने चाहै छै सबकुछ बिसराबै लेॅ,
मजकी सब आबै छै याद।
सुनसान पाबी केॅ हुट्ठी अतीतें ने
मानोॅ जे करै फरियाद-
”लंका में राबन के गोष्ठी संहारीकोॅ,
देॅ केॅ विभीषण केॅ मान।
प्रेमातुर प्रियतम के निर्भय सहारा पर;
लेॅ उड़लै पुष्पक विमान॥
”धरती के कोरा में सपनामें डुबलेॅ रं,
सट्टी केॅ जंगल-पहाड़।
पंचवटी, दण्डकवन, चित्रकूट लौलीनोॅ;
अहरह लुटाबै में प्यार॥
”पर्नकुटी जंगल में छिपलै, नुकाय गेलै,
जेना विषादेॅ के रेख,
कालोॅ के सीतोॅ में बहलै मेटाय गेलै,
कैकेयी मैया के तेख“॥
”पतझर के बितला पर फेरू लहकी उठलै,
अवधपुरी बरगद के ठार।
छाती जुड़ैलै पुरबासी के,परजा के;
मिललै बिछड़ला केॅ प्यार“॥
”अवधपुरी अंतःपुर बनिका अशोकोॅ के,
रामोॅ के मधुमय मुस्कान।
फूलोॅ सें सजलोॅ सब गाछ-बिरिछ लोॅत-पात;
पंछी के भमरा के गान“॥
”जिनगी के सुखलोॅ रं नद्दी में जेना की,
आबै छै बोहा के धार।
जेनाकी टुट्ठोॅ-निपत्तोॅ फुलवारी में;
उमड़ै वसन्त के प्यार”॥
”जेना की मरछुहोॅ धानोॅ के गाभा में,
परै छै पानी के बुन्द।
तेन्है केॅ गुंजारी उठलै अनचोके सें,
जीवन में यौवन के छन्द“॥
”सुतलामें, जगलामें, सपना-बिचारोॅ में
प्रीतम, बस प्रीतम के रूप।
श्याम वरन सुन्दरता सागरमें भाँसै छै;
मन-चित्त सब सुध-बुध अपरूप“॥
”सौसेटा दुनियोॅ के अमृत-बटोरी केॅ,
मुस्कैलोॅ आबै छै चान।
मलयानिल कान्हां पर सब सौरभराखी केॅ
भोरें जनाबै छै मान“॥
”बिन मांगने आबै छै मनबिच्छा सामग्री
जानीकॅ मनोॅ के भाव।
प्रीतम के कृपा-कोर पाबीकेॅ लहराबै;
हिरदय में जीयै के चाव“॥
”की इच्छा बाकी छौं हे सीते बोलोॅनी
रामे ने पूछै छै बात।
ठमकी केॅ कमलोॅ सें भरलोॅ तालाबोॅ लग;
हाथोॅ में राखी केॅ हाथ“॥
”की रहतै शेष हे प्राननाथ तोरालग,
की रहतै बाकी अरमान।
मजकी चित चंचल छै, जानी नै पड़ै छै,
विधना के लीला अनजान“॥
”चाही छी एकबेर देखैलेॅ मुनि-आश्रम,
तपभूमी जग्य-जाप धाम।
‘जे इच्छा’-गहरैलोॅ बानीसें बोलीकेॅ;
अनचोके चुप भेलै राम“॥
”भारे टा साजीकॅे रंथ एक सुन्दर रं,
लछुमन छेॅ लागीकेॅ द्वार।
मुनि-आश्रम खातिर तैयारी में लौलीनेॅ;
अजगुत छै प्रीतम के प्यार“॥
”लछुमन-सुमन्तोॅ के साथोॅ में हुलसैली,
जाय रल्छै जंगल के घाट।
असगुन-निहारी अनचौके सें हहरै छै;
पहुँची केॅ गंगा के घाट“॥
”गंगा के धारा में नैया बहलोॅ जाय छै,
होय रल्छै अवधपुरी दूर।
रंथोॅ के घोड़ाँ निरजासै छै करुणा सें;
लछमन के मुख-शोभा चूर“॥
”एक बेर टहकारी उठलै करेजामें,
फेरू सें भागोॅ के भोग।
अट्टट अभागला केॅ कहियोकी मिललोॅ छै,
बेसी दिन सुक्खोॅ के जोग?“॥
”कानी केॅ कहलकै लछुमन ने है मैया,
हमरा नै दीहोॅ कुछ दोष।
पराधीन जानो सब छमिहोॅ अपराधोॅ कोॅ;
हमरा पर करिहं नैं रोष“॥
”उचित यहाँ भैया केॅ नै छेलै करबाना
हमरा सें ऐहनोॅ अपराध।
बार-बार पाबै छी अधम आय अपना केॅ;
हमरा सें अच्छा छै व्याघ“॥
”नावोॅ सें उतरी केॅ सीतां धरने छेलै,
तीरोॅ पर पैहले टा डेग।
लागलै जेना केॅ की धरती धसकेॅ गेलै;
छुटलै अचीके सब थेग“॥
”बोलेॅ हे लछुमन सब साफ-साफ बोली देॅ,
होय गेलै सीता बेचैन।
तड़की केॅ टुटलै खुशियाली सब मूहों के;
हहरी केॅ भहरैलै नैन“॥
”केना केॅ बतलैभौं हे मैया बोलोॅनी,
केॅ देलखौं राजा ने त्याग।
लंका में रहला सें, परजा में उठलोॅ छै,
तोरा पर झुðा अपवाद“॥
”कटलोॅ गाछीरेॅ ई सुनथैं गिरलै सीता,
मेॅ गेलै मुर्छित-अचेत।
पापी दुर्दैर्बे ने घड़ी-दू-घड़ी में;
फेरू सें आनलकै चेत“॥
”हमरा कपारोॅ में दुक्खे-दुख लिखलोॅ छेॅ,
एकरा में केकरो नै दोष।
हे लछुमन डिगिहोॅ नैं अपना कर्त्तव्योॅ सें;
तोरा पर तनियों नै रोष“॥
”कहिहोॅ गोडेॅ लागबोॅ हमरोॅ सब सासू सें,
भैया सें कहिहोॅ परनाम।
जेना केॅ जस फैलेॅ, छूटेॅ अपवादोॅ सें,
ओन्है केॅ सलटैतात् काम“॥
”जन्मोॅ सें दुखिया छीं हम्में, हमरोॅ करथिन,
हूनी नैं तनियों टा सोच।
राखिहोॅ धियानोॅ में कू-सें-कलेप हुअेॅ-
हुनका नैं हुअेॅ अफसोच“॥
”जंगल में कुटिया में, जिनगी गुजारने छी,
मजकी ई बेर-असंभार।
गंगा के धारोॅ में होतियाँ समर्पित पर-
धरने छी राजवंश-भार“॥
”एक्के टा चिन्ता छेॅ केकरा सें बतियैबै,
हिरदय के दुख-सुख-संवाद।
अपना में एकाकी केना केॅ बहलैबै;
मनोॅ केॅ बिसरी केॅ याद“...?
आश्रम नगीचोॅ में खट-खट खड़ामोॅ पर,
मुनिवर के आबै के भान।
पाबी केॅ बैदेही बैठली सम्हारी केॅ;
तोड़ी अतीतोॅ के ध्यान॥
अँचरा के छोरोॅ सें, बेसुध बहलोॅ गेलोॅ,
पोछी केॅ आँखी के लोर।
लागली निरजासेॅ एक टक्कोॅ सें सीताने;
विस्तृत सरंगोॅ के कोर॥
बरसी केॅ सूनोॅ छै आसमान जेनाकी,
मनोॅ में सबटा बिचार।
निकली केॅ रचने छै, बाल्मीकी आश्रम में,
सीता के सूनोॅ संसार॥