सती परीक्षा / सर्ग 7 / सुमन सूरो
लव-कुश के रामायण गान
होम-कुंड में समिधा साथें,
अन्तर द्वन्द समर्पी केॅ।
स्थिर चित्त छै राम समस्थित,
भोग-भवना अर्पी केॅ॥
तपलोॅ सोनोॅ रं दमकी केॅ।
मुँह के ओप निखरलोॅ छै॥
आध्यात्मिक जीवन के महिमा,
आठो अँग बिथरलोॅ छै॥
जीवन के उल्लास, शोक, जय
बिजय, पराजय धारी में।
अर्थहीन गाछी रं खाड़ोॅ,
जीवन के फुलवारी में॥
जेना महासमुद्र तरंगित,
सहसा बिलकुल शान्त भेलै।
मेघहीन आकास नीलिमा,
जेना दीपित कान्त भेलै॥
मिललै कोय निदान जेनाकी,
सबसें कठिन समस्या के।
या कि उपजलै शान्ति,
सिद्धि के बादें कोय तपस्या के॥
शान्ति-तेज सनलोॅ मुख-मंडल,
अजगुत भाव बिराजै छै।
धुललोॅ नील कमल में निश्चल
मनि के दीपक राजै छै॥
ध्यान कहीं छै दूर अटकलोॅ,
बीना के झँकारोॅ पर!
अँगुरी सें आघात करै छै,
जें अंतर के तारोॅ पर॥
भुललोॅ एक कहानी साथें,
एक पिहानी जीबन के।
पढ़ने आबै राग-भास सें,
परिचय देने छन-छन के॥
आबी रल्छै पास दूर सें,
मानोॅ एक भुलैलोॅ याद।
बीना के सुमधुर स्वर-लहरी,
पर लहरै छै अजगुत नाद-
”पुष्प वाटिका जनकपुरी के
खाड़ोॅ लखन-सीय, रघुनाथ।
नयन कोर पर नेह उमड़लोॅ,
सहज मौन लज्जा के साथ॥
चल चितवन छै थकित-अस्थकित,
लीन कहीं छै सुरता-ध्यान।
धरलोॅ हार कबूली मानोॅ,
मृग-नैनी के तीर-कमान॥
कुंज-कुंज में फूल, फूल में,
मादकतम भौंरा के शोर।
ऊ शोभा-सौन्दर्य निहारी;
छन में तन्मय प्रान विभोर॥
जनम-जनम के परिचय जेना,
भेलै प्रगट अपरिचय बीच।
भावलोक में गाढ़ालींगन;
दूरी छोड़ी हृदय नगीच॥“
-विह्वल भेलै राम सुनी केॅ,
मधु अतीत के लयमय तान।
एक मधुर प्रतिमा मुस्कैलै;
घेरी केॅ सौंसे सुनसान॥
दोनांे तरुन गबैया केॅ,
जोरोॅ सें तुरत हँकाय नगीच।
आदर पूर्वक आसन देॅ केॅ;
राम कहलकै गाबोॅ गीत॥
जनकपुरी से ब्याह करी केॅ,
चारो भैया ऐलै गाँव।
खुशी उमड़लै अबध पुरी में;
दुःख-शोक के मिटलै नाँव॥
रुख देखी सीता नें सेबै,
रामोॅ के मुख साँझ विहान“
-सतहत्तर सर्गोॅ पर आबी;
केॅ रुकलै बीना के तान॥
‘साधु-साधु हे वत्स’ कहीक’,
रामें लेलकै कंठ लगाय।
एक भाव-धारा में फेरू;
मन के नाव गेलै सोझियाय॥
आज्ञा देलकै-”मनि-मानिक्य,
रत्न, सोनोॅ, चानी भंडार,
सें मन-बिच्छा जे माँगेॅ;
से दान करोॅ दू मुनी-कुमार॥
”सन्यासी केॅ धन-दौलत सें,
रत्न विभूषण सें की काम“?
देखै छै अपलक दोनों केॅ;
कातर चकित नयन सें राम॥
”कोन कुलोॅ के कमल उजागर,
केकरोॅ कोख सजैने छोॅ?
महामनस्वी कोन गुरु सें;
एहनोॅ शिक्षा पैने छोॅ?“
”मुनिवर बालमीकि के चेला,
हमरा दुओ सुनोॅ मतिमान।
आयोजन जों हुअेॅ सुनेहौं;
तेॅ सम्पुट रामायण गान“॥
बालमीकि के नाम सुनी केॅ,
टहकारी उठलै कुछ बात।
अन्तर-पट पर चमकी उठलै;
एक अन्हारी जीबन-रात॥
”बिधिवत होतै आयोजन सब,
आबोॅ कल सें दोनों साथ।“
-एक मौन ने घेरी लेलकै;
अटकी गेलै बाकी बात॥
2.
मचलै खौल सभेदिस नैमिष-
वन में, बनके चारो ओर।
राग-भास सें रामायण के;
पाठ सुनै लेॅ मचलै सोर॥
जोगी, जती, तपी, सन्यासी,
बनवासी, राजा-महराज।
अवधपुरी के ऐलोॅ-गेलोॅ;
जोॅर-जनानी, सोॅर-समाज॥
मुनि, पंडित, वेदग्य, पुरानिक,
संगित के पारंगत लोग।
छन्द व्याकरण के जनबैया;
जोतिष-विद्या, भाषा-बोध॥
छत्री, शुद्र,वेश्य, ब्राह्मण सब,
दर्शन, कल्पसूत्र विद्वान।
नीति-निपुन, वेदान्त-विसारद;
हर्स-दीर्घ, लघु-गुरु-गुनबान॥
बालक, वृद्ध, जुआन सभे
आबी केॅ जुटलै मंडप पास।
सबमें एक अपूरब श्रद्धा;
सबमें अजगुत एक हुलास॥
स्नान-ध्यान-संध्या-वंदन
सब समिधा-होमनित्य के काम;
निस्तारी केॅ कुश-लब दोनों;
गेलै जहाँ प्रतिष्ठित राम॥
सभाबीच बैठलोॅ छै उत्सुक,
श्रेष्ठ पूज्य सब मुनी समाज।
विश्वामित्र, वशिष्ठ, जबाली;
गौतम, बामदेव, मुनिराज॥
महा तपस्वी दुर्वासा, वामन,
पुलस्त मुनि दीर्घतमा।
शतानन्छ, सुप्रभ नारद;
भार्गब, अगस्त, सब महामना॥
भरद्वाज मैदगल्य गर्ग सब
मुनिवर मारकण्डेय महान।
सब केॅ च्यवन, शक्ति के साथें;
कुश-लव देलकै दण्ड प्रनाम॥
चारो दिस गुँजारी उठले,
”साधु-साधु“ के स्वर-संचार।
जेना शुक्र-संहिता साथें;
सोहै दू अश्विनी कुमार॥
मधुर तार वीना के बजलै,
उठलै एक अलौकिक तान।
सभा बीच जें तानी देलकै;
चिर अतृप्ति के एक वितान॥
सब आनन्द मगन, सब उत्सुक,
सब में एक अलौकिक भाव।
चरण-चरण पर रस आलोड़न;
सबमंे बहलै एक बहाव॥
कै दिन बजलै बीन यहेॅ रं,
कै दिन भेलै काव्य के पाठ।
राम चरित के गायन कै दिन;
कै दिन सजलै सभा-समाज।
लंका-विजय अयोध्या आपस,
आगू भलै कथा के सूत्र।
सबने ई आख्यान सुनलकै;
कुश-लव छेकै राम के पुत्र॥
”कुश-लव छेकै राम के पुत्र,“
लछुमन भेलै मगन-विभोर।
सब समाज के हृदय द्रवित छै;
भिजलै सब आँखी के कोर॥।
लेकिनराम अचंचल-आसन,
बैठलोॅ दाबी केॅ मन-प्राण।
जिनगी के ई नया मोड़ पर;
एक घड़ी जुग-कल्प समान॥
एक अनिश्चित भाव उमड़लै,
मिटलै तुरत पलक के बीच।
सबने मुख रामोॅ के देखै;
दू टा दूत बोलाय नगीच॥
”पूज्यपाद बाल्मीकि मुनी केॅ,“
आज्ञा देलकै- ”बोलोॅ जाय।
उचित हुअेॅ जों तेॅ बैदेहीं;
पुनरग्रहण के करेॅ उपाय“॥
”सीता परम पवित्र शुद्ध छै,
सभा-बीच कल दियेॅ प्रमान।
मुनिवर के बिचार जानीकेॅ;
खबर करोॅ“- चुप भेलै राम॥
”साधु-साधु“ के हर्ष नाद सें,
भरलै पोरम्पोर अकास।
कलपर सब निर्भर छै सोची;
अपना-अपनी गेलै बास॥
सभी बीच वैदेही आबी
केॅ खुद देतै शुद्धि-प्रमान।
मुनिवर के संदेश सुनैलकै;
दूत करी केॅ दण्ड-प्रनाम॥