सत्य की जीत / भाग - 10 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
बात सुनकर विकर्ण की, सभी
सभासद् थे ज्यों मन्त्र-विमुग्ध।
हृदय से थे सब उनकी ओर
किन्तु थी वाणी कुछ अवरुद्ध॥
बात ज्यों उनकी हुई समाप्त,
सभा में हुआ उसी क्षण शोर।
शकुनि की, दुःशासन की लोग
लगे करने निन्दा सब ओर॥
हुआ जब कोलाहल कुछ शान्त,
रोष में उठकर बोले कर्ण।
”अरे ओ! कौरव-कुल उत्पन्न,
हुआ क्या तुमको आज विकर्ण?
कर रहे हो अपने ही सबल
पक्ष का तुम इस तरह विरोध।
अभी तुम हो अनुभव से शून्य,
नहीं तुमको यथार्थ का बोध॥
भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोण, कृप-सदृश
सभासद् बैठे हैं विद्वान।
बड़े हैं वे तुमसे हर तरह,
दे रहे हो तुम उनको ज्ञान॥
धर्म से विजित हुई द्रौपदी,
इसी से तो वे सब हैं मौन।
किया कृष्णा ने प्रेरित बार-
बार, लेकिन बोला है कौन?
इसलिए नहीं कि उनको है न
धर्म का औ’ अधर्म का ज्ञान।
वृद्ध हैं, बुद्धिमान, शास्त्रज्ञ,
न तुम जैसे बालक नादान॥
युधिष्ठिर भरी सभा के बीच
गये सर्वस्व स्वयं जब हार।
रही तब कहाँ द्रौपदी शेष?
शान्त हो इस पर करो विचार॥
उन्होंने स्वयं लगाकर दाँव
द्रौपदी का, खेला हैखेल।
भावनाओं में ही मत बहो,
बुद्धि का करो हृदय से मेल॥
शकुनि की, छल के बल से नहीं
हुई है न्याय-धर्म से जीत।
साक्षी है प्रत्येक सदस्य
नहीं कुछ हुआ धर्म-विपरीत॥
न अब इस पर आगे कुछ बहस,
बात है सभासदो! यह स्पष्ट।
द्रौपदी हुई धर्म से विजित,
हो गया है विकर्ण पथ-भ्रष्ट॥
दुःशासन उठो, पाण्डवों और
द्रौपदी के लो वस्त्र उतार।
राजसी वेष में न अब इन्हें
एक क्षण रहने का अधिकार॥“
कर्ण के तर्कों से भर गया
कौरवों में अपूर्व उल्लास।
पाण्डवों पर उठ-उठ कर दृष्टि
कर रही थी उनका परिहास॥
सभासद थे सब चिन्तित, किन्तु
मौन थे; बड़ा कठिन था न्याय।
प्रश्न को सुलझाने के लिए
सूझता था उनको न उपाय॥
युधिष्ठिर सहित पाण्डव सभी
मौन थे; थे विस्फारित नेत्र।
शून्य की ओर लगी थी दृष्टि
जा रहा था उनसे रण-क्षेत्र॥
गये कुछ पल-क्षण यों ही बीत
सभा में थी नीरवता व्याप्त।
सभी की थी चिन्ता बस एक
कि कैसे हो इसका हल प्राप्त॥
दृष्टि थी एक युधिष्ठिर पर
सबकी ही, जो कि सत्य की मूर्ति।
स्वयं करते थे उनसे ग्रहण
धर्म औ’ सत्य प्रेरणा-स्फूर्ति॥