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सत्य की जीत / भाग - 13 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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द्रौपदी की सुन कर ललकार,
दुःशासन बढ़ा खींचने चीर।
भीम के लगे फड़कने ओठ,
युधिष्ठिर रहे किन्तु गम्भीर॥

और पांचाली का अब रूप
अग्नि की लौ-सा हुआ अकम्प।
सत्य का सम्बल ले कर एक
डटी थी ले उर में भूकम्प॥

खुली वेणी के लम्बे केश
पीठ पर लहराये बन काल।
उगलते ज्यों विष कालिय नाग,
खोल कर मृत्यु-फणों का जाल॥

माँग में सिंदुर की वह रेख,
मौन विद्युत-सी घन के बीच।
कि जैसे अवसर पाकर शीघ्र
गिरायेगी दुश्मन पर खींच॥

और वह मुख! प्रज्ज्वलित प्रचण्ड,
अग्नि का खण्ड, स्फुलिंग का कोष!
प्रलय के सहस्त्रांशु की भाँति
कठिन था सहना उसका रोष॥

छिपाये हो जैसे विस्फोट
भयंकर ज्वालामुखी पहाड़।
सिन्धु के अन्तर की अभिव्यक्त
हो रही ज्यों बड़वानल-बाढ़॥

श्वास में प्रबल प्रभंजन तेज,
बह रहा था झंझा बन विकट।
अग्नि-लपटो की उठती बाढ़
कौन जा सकता उसके निकट॥

प्रगति में वेग, मार्ग अवरुद्ध,
बन्द थे ओठों के दृढ़ द्वार।
प्रभंजन उमड़-घुमड़ उर बीच
कर रहा था रह रह हुंकार॥

वक्ष था तना हुआ, भर रोष,
प्रभंजन का आवेग अपार।
नासिका के रंध्रों को फोड़
निकल, करता रह रह फुफकार॥

और वे काली काली भौंह
लोटतीं नयनों पर निःशंक।
लहर खातीं भुजंगिनी-सदृश
मारने ज्यों उद्यत विष-डंक॥

फणों में दबा हुआ था एक
मौन भीषण विषाक्त फूत्कार।
या कि दो धनुष चढ़े थे, किन्तु
मौन प्रत्यंचा की टंकार॥

छोड़ने अग्नि-बाण विषपूर्ण
नेत्र के तरकश थे तैयार।
खिंच चुके थे कानों तक धनुष
शत्रुओं पर करने को वार॥

किन्तु वह बरबस उनको रोक
रही थी दृगंचलों की ओट।
नहीं तो अब तक कितनी बार,
हुई होतीं बाणों की चोट॥

थामती थी अंचल चल कुपित
खसकता था जो बारम्बार।
ठहरने कब देता था उसे
श्वास-झंझा का वेग अपार॥

बना था अन्तर उदधि अशान्त,
क्रोध बड़वानल, श्वास समीर।
हिलोरें क्रुद्ध अंग-प्रत्यंग,
फेन-सा उठ-उठ गिरता चीर॥

नहीं थी नारी वह द्रौपदी,
रूप में थी दुर्गा साक्षात्।
दमन करने अन्याय-अधर्म
उठे हों जिसके आठों हाथ॥