सत्य की जीत / भाग - 17 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
देख सबको तब चिन्तित दुखी,
उठे, बोले धृतराष्ट्र गँभीर!
”शान्त हो सभा, शान्त द्रौपदी
न किंचित हो उद्विग्न, अधीर॥
हुई है दुर्योधन से भूल,
किया है उसने यह दुष्कर्म।
पाण्डवों पर छल से आघात
कहा जा सकता न्याय न धर्म॥
द्रौपदी धर्मनिष्ठ है, सती-
साध्वी, न्याय-सत्य साकार।
इसी से आज सभी से प्राप्त
उसे बल, सहानुभूति अपार॥
करो दुर्योधन! पाण्डव मुक्त,
उन्हें दो उनका अपना राज।
करो प्रायश्चित जो कुछ किया
साथ में तुमने उनके आज॥
नीति समझो मेरी यह स्पष्ट
‘जियें हम और जियें सब लोग।’
बाँट कर आपस में मिल सभी
धरा का करें बराबर भोग॥
छीन कर औरों के अधिकार
न कोई बने यहाँ बलवान।
भूमि-जल-नभ-पावक औ’ पवन
सभी हों सबको सुलभ समान॥
न्याय - समता - मैत्री - भ्रातृत्व-
भावना - स्नेहिल सह - अस्तित्व।
इन्हीं शाश्वत मूल्यों से बने
विश्व का मंगलमय व्यक्तित्व॥
युद्ध से नहीं, प्रेम से पहुँच
पास, तुम इनका करो प्रसार।
आज के युग की रे यह माँग,
आज के युग की यही पुकार॥
किये हैं जितने भी एकत्र
शस्त्र तुमने, उनका उपयोग
युद्ध-हित नहीं, शांति-हित करो,
वही है उनका स्वस्थ प्रयोग॥
शक्ति का और ज्ञान का किया
आज तक जितना भी संचयन।
लगाओ उन कार्यों में इन्हें
कि जिनसे हो सुन्दरतम सृजन॥
तभी होगी धरती पर शान्ति
विश्व का होगा तभी विकास।
तभी पनपेगा मानव - धर्म
सिमिट पृथ्वी आयेगी पास॥
द्रौपदी, तुम भी कर दो क्षमा
भूल सारे अधर्म-अन्याय।
मैत्री, प्रेम, शान्ति से पुनः
करो आरम्भ नया अध्याय॥
घिरा है यों ही रे यह बहुत
प्रलय के मेघों से आकाश।
किसी भी एक व्यक्ति की भूल
सृष्टि का कर सकती है नाश॥
युधिष्ठिर! धर्म-परायण, श्रेष्ठ!
करो अब निर्भय होकर राज्य।
शक्ति तुम में है ऐसी निहित
कि होगे तुम सबके आराध्य॥
जानते हो तुम होता जब कि
बुद्धि में और हृदय में योग।
तभी कर पाता है रे नृपति
वस्तुतः सुखद राज्य का भोग॥
प्रेम औ’ करुणा, सहानुभूति,
शील औ’ क्षमा, सहन की शक्ति।
पाप से युद्ध, पुण्य से सन्धि
घृणा का त्याग, शान्ति-अनुरक्ति॥
हृदय की ये वृत्तियाँ बलिष्ठ,
मनुजता के विकास की मूल।
किन्तु तुम देख रहे हो आज
रही है बुद्धि इन्हीं को भूल॥
इसलिए ही मानव में अभी
शेष हैं दानवता के अंश।
गरज कर जो उद्यत हैं स्वयं
नष्ट करने अपना ही वंश॥
नहीं हो पाया है सन्तुलित
विश्व का इसीलिए व्यक्तित्व।
बुद्धि सिर पर चढ़ कर है दिखा
रही अपना ही प्रबल प्रभुत्व॥
मुझे विश्वास है कि तुम बुद्धि
और अन्तर का कर सन्तुलन।
विश्व-उपवन में दोगे खिला
नये मानव का सुन्दर सुमन॥
और, अरि से भी जो तज बैर
प्रेम से करता मृदु व्यवहार।
छोड़ अवगुण औरों के, खींच
गुणों का लेता है जो सार॥
असंस्कृत, कटु, असत्य, विषपूर्ण
बोल भी करते जिसे न क्षुब्ध।
सिन्धु-सा ले अपार गाम्भीर्य
रहा जो मर्यादा में बद्ध॥
युधिष्ठिर! वही पुरुष है श्रेष्ठ,
वही कर सकता जग-कल्याण।
देर हो भले, किन्तु यह विश्व
उसे लेता ही है पहचान॥
आज दुर्योधन की थी कुटिल
चाल, अन्यायपूर्ण आघात।
किन्तु आचरण तुम्हारा श्रेष्ठ
रहा है फिर भी उसके साथ॥
इसी से दिग्-दिगन्त के यहाँ
उपस्थित जो प्रतिनिधि, विद्वान।
सभी से तुम्हें प्राप्त है स्नेह
और बल, सहानुभूति समान॥
तुम्हारे साथ तुम्हारा सत्य,
शक्ति, श्रद्धा, सेवा औ’ कर्म।
यही जीवन के शाश्वत मूल्य
इन्हीं पर टिका मनुज का धर्म॥
इन्हीं का लेकर दृढ़ अवलम्ब
चल रहे हो पथ पर अभय।
तुम्हारा गौरवपूर्ण भविष्य,
प्राप्त होगी पग-पग पर विजय॥
जहाँ है सत्य; जहाँ है धर्म
जहाँ है न्याय, वहाँ है जीत।
तुम्हारे यश-गौरव के दिग्-
दिगन्त में गूँजेगे स्वर, गीत॥
द्रौपदी सहित, भाइयों सहित
करो अब मंगलमय प्रस्थान।
तुम्हारे साथ विश्व है, क्योंकि
तुम्हारा ध्येय विश्व-कल्याण॥“