सत्य की जीत / भाग - 2 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
”मौन हो जा, मैं सह सकती न
कभी भी नारी का अपमान।
दिखा दूँगी मैं तुझको अभी
गरजती आँखों का तूफान॥
नहीं नारी के बल का अभी
लगा पाये हो तुम अनुमान।
शक्ति उसमें है वह सन्निहित
कि जिससे हिल जायें चट्टान॥
डगमगाएँ धरती आकाश
प्रकम्पित हो पयोधि का नीर।
हिलोरें उमड़-घुमड़ कर बहें
नष्ट कर दें जलनिधि का तीर॥
परिस्थितियों की हो यदि माँग,
यही कलिका कोमल सुकुमार।
धार सकती भैरवी स्वरूप
पापियों का करने संहार॥
चन्द्रमुख बन कर रे हिमखण्ड
गला सकता है कण-कण एक।
वही बन कर रे सूर्य प्रचण्ड
जला सकता है तृण-तृण एक॥
केश बन प्रलय-घटा गम्भीर
गरज कर, भर अम्बर में रोर।
बरस कर पृथ्वी-तल पर सतत
डुबो सकते अम्बर का छोर॥
और भी अंग और प्रत्यंग,
सहज कोमलता अपनी त्याग।
धार कर कुटिल भयंकर वेष
उगल सकते विष बन कर नाग॥
नहीं कलिका कोमल, सुकुमार,
नहीं रे छुईमुई-सा गात!
पुरुष की है यह कोरी भूल,
उसी के अहंकार की बात॥
भूल ही नहीं, अहं ही नहीं,
पुरुष का है यह अत्याचार।
समझ बैठा है वह इस अखिल
विश्व पर अपना ही अधिकार॥
फूल खिलते उसके ही लिए,
मस्त कलियों पर मधु गुंजार।
निर्झरों का झर-झर-झर गान,
सरित की कल-कल करती धार॥
मधुर मंजरियों की मृदु महक
डालियों की कुहु-कुहु कल तान।
धरणि का पुलक प्रकट उच्छवास
समीरण का मधु सौरभ-दान॥
स्वर्ग के झिलमिल करते दीप
निशा का अंचल निर्मल, स्वच्छ।
सुधाकर की किरणों से खेल
खेलने वाला जलनिधि-वक्ष॥
हिमाचल की चोटी का स्वर्ण
रसातल के रत्नों का ढेर।
रात के सपनों का संसार
प्रात के जीवन की मधु टेर॥
पवन-जल-अग्नि-धरा-आकाश
प्रकृति के पाँच मूल जो तत्त्व।
सृजित जिनसे है सारी सृष्टि
विश्व का है जिन पर अस्तित्व॥
समझता पुरुष उसी के लिए
हुआ रे इन सब का निर्माण।
बँटा सकता क्या कोई और
इन्हें है उसको यह अभिमान॥
उसे कुछ ऐसा है विश्वास
कि जग में शक्ति कहीं क्या और?
अरे उससे भी अधिक बलिष्ठ,
छीन सकती जो उसका कौर?
सोचता- ‘होती जिनमें शक्ति
उन्हीं के बस में सब संसार।’
सोचता- ‘यही प्रकृति का नियम,
शक्ति जिनकी, उनका अधिकार॥’
धारणा यह परन्तु निर्मूल,
पुरुष समझा न अभी संसार।
प्रकृति का आश्रय ले कर व्यर्थ
किया करता नारी पर वार॥
प्रकृति ने बतलाया कब पुरुष
बली है; नारी है बलहीन
कहाँ अंकित उसमें रे पुरुष
श्रेष्ठ; नारी निकृष्ट, अति दीन॥
एक कलिका अवश्य सुकुमार
किन्तु वह तीक्ष्ण कण्टकों बीच।
जानती है खिलने का खेल
विहँस खिल जाती है रे नीच!!
स्वयं शैशव से ही वह तेज
बना काँटों को अपना दास।
अंग-रक्षा करवाती सतत।
और खिलती रहती सोल्लास॥
जिन्होंने सघन घनों के बीच
कड़कती विद्युत का शृंगार।
कभी देखा हो, वे ही कहें
कि वह शृंगार है कि अंगार॥
लपलपाती जिह्वा विकराल
अग्नि-ज्वाला, प्रज्ज्वलित प्रचण्ड।
कड़कती है अम्बर में निडर,
गरजते मेघों के कर खण्ड॥
निरन्तर सरिताएं बह रहीं
तोड़ कर वृक्ष, बाँध, चट्टान।
कूल कब रोक सके हैं बाढ़
हृदय में आया जब तूफान॥
बहा ले जातीं अपने साथ
गाँव के गाँव, नगर के नगर।
छोड़ अपना मृदु कल-कल नाद
गरजतीं चढ़ी लहर पर लहर॥
तरंगें जलनिधि की उत्ताल
रसातल के उर का कर स्पर्श।
किनारों पर मणियों के ढेर
लगा देती हैं सतत सहर्ष॥
विश्व भूखी झोली का पेट
खोल कर बढ़ता उनकी ओर।
मुदित होकर बटोरता शीघ्र
दिखाता ललचाई दृग-कोर॥
तरंगें फिर आ तट के पास
फेंक जाती अगणित मणि-रत्न।
लौट जातीं करतीं कल्लोल,
पुनः करतीं लाने का यत्न॥
खेल इनका झंझा के साथ
जिन्होंने देखा आँखें खोल।
जानते हैं वे ही इन सिन्धु-
लहरियों के जीवन का मोल॥
चला करता है इनका सतत
बिगड़ने बनने का व्यापार।
सुदृढ़ रखने कोमल अस्तित्व
झेलती हैं झंझा की मार॥
मार मारुत की जितनी अधिक
रूप धारण करती है विकट।
शीघ्र उतना ही भैरव रूप
धार कर होती हैं ये प्रकट॥
नाश-निर्माण हँसी के साथ
यही इनके जीवन का खेल।
कौन सी जग में रे वह शक्ति
मृत्यु को लेती है यों झेल!!
वस्तुतः नारी मूर्त्तस्वरूप
शक्ति की; शक्ति स्वयं स्त्रीलिंग।
शक्ति के बिना न शिव है पूर्ण
वही शिव जो कि अरे पुल्लिंग!!
पुरुष उस नारी की ही देन
उसी के हाथों का निर्माण।
उसी के मृदुल अंक में निहित
पुरुष के जीवन का कल्याण॥
उसी नारी, जननी को आज।
पुरुष की रे ऐसी ललकार!
हुआ मुझको सुन कर आश्चर्य
अरे पुरुषत्व! तुझे धिक्कार!!
विश्व के मंगल-हित भी आज
चाहिए नारी का ही स्पर्श!
पुरुष ने धरा बना दी नर्क
समझता है उसको उत्कर्ष॥
पुरुष के पौरुष से ही सिर्फ
बनेगी धरा नहीं यह स्वर्ग।
चाहिए नारी का नारीत्व
तभी होगा पूरा यह सर्ग॥“