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सत्य की जीत / भाग - 3 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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”सिंहिनी, हो जा बस अब मौन
सुन चुके तेरी गरज, दहाड़।
सरित-कलकल चंचल क्या कभी
हिला पायी है कहीं पहाड़?

लहरियों का भी देखा खेल,
निकट भूधर के जा, गुण-गान
किया करतीं, औ’ छूकर चरण
लौट आतीं पाकर वरदान॥

और यदि उठा कभी तूफान
अचल से लेने को संघर्ष।
वहीं हो जाती हैं वे नष्ट
टक्करें खा खाकर दुर्द्धर्ष॥

न रहता है उनका अस्तित्व,
यही उनके जीवन का खेल।
भयंकर तूफानों की बाढ़
अचल ही हैं जो देते ठेल॥

सिन्धु के वक्षःस्थल पर सतत
लहरियाँ करती हैं कल्लोल।
तटों के भुज-पाशों में बद्ध
हृदय के उर्मिल बन्धन खोल॥

खूब देखा मेघों के बीच
चमकती चपला का शृंगार।
शीत वक्षःस्थल का पा स्पर्श
बुझाती हैं उर के अंगार॥

यही नारी-जीवन का मोल,
यही नारी-जीवन का अर्थ।
यही है नारी का इतिहास
बिछा मत तर्क-जाल यों व्यर्थ॥

हुआ जो अब तक विश्व-विकास
पुरुष का पौरुष उसका मूल।
और जो हुए युद्ध-विध्वंस
रही है नारी उनका मूल॥

साक्षी है इसका इतिहास
धरा पर बोल रहा सर्वत्र।
चलाये हैं नारी ने सिर्फ
रूप-शृंगार-काम के अस्त्र!!“