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सत्य की जीत / भाग - 4 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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”मौन हो दुःशासन निर्लज्ज
अभी टूटेगा तुझ पर वज्र।
छा रहे तेरे सिर पर उमड़-
घुमड़ कर आज प्रलय के अभ्र॥

जानता नहीं कि मैं हूँ कौन?
‘द्रोपदी, धृष्टद्युम्न की बहन।
पाण्डुकुल-वधू’, भीष्म, धृतराष्ट्र
विदुर को कब रे यह सब सहन!!

विश्व के अद्वितीय बलवान
सुना तुमने अर्जुन का नाम।
वही मेरी वेणी में फूल
गूँथता रहता है अविराम॥

भीम! जिनके भुजदण्ड प्रचण्ड,
शक्ति के सिन्धु, प्रलय की रोर।
नष्ट कर दें जो सृष्टि अखण्ड
उठा कर कुपित दृष्टि की कोर॥

नकुल, सहदेव, सभी बलवान
श्रेष्ठ हैं अधिक एक से एक।
धर्म के साक्षात् अवतार
शान्त महाराज युधिष्ठिर देख॥

किन्तु सब मौन आज इस समय
इसलिए नहीं कि वे बलहीन।
खिंची है मर्यादा की रेख
वंश के हैं वे उच्च कुलीन।“

”व्यर्थ मत कर इनके गुण-गान
सुने हैं इन वीरों के नाम।
आज से दासी बन, कर यहाँ
हमारे अन्तःपुर में काम।“

”दु्रपद-कन्या, पाण्डव-कुल-वधू
अरे तेरी दासी हो नीच!
बोल मत तू ऐसे ये बोल
वज्र लेगा जिह्वा को खींच॥“

”ओह देखो! पाण्डव-कुल-वधू!
पाँच पतिवाली! फिर भी आज
विश्व को मुँह दिखलाने योग्य
बनी है अपने कुल की लाज॥

गा रही है जिनके ये गान
सुने हम सब ने उनके नाम
आज से नहीं, देखते सतत्
आ रहे हैं हम उनके काम॥

अगर ऐसे होते वे वीर
न आ पाती ऐसी स्थिति आज।
बैठते सिंहासन पर स्वयं
भोगते धरा-स्वर्ग का राज॥

किन्तु कहना मुझको कुछ नहीं
गये हैं तुम्हें युधिष्ठिर हार।
जुए में लिया धर्म से जीत
कौरवों का तुम पर अधिकार॥“