सत्य की जीत / भाग - 5 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
”जुए में लिया धर्म से जीत
कौरवों का मुझ पर अधिकार।
असम्भव है यह, धर्म-विरुद्ध,
कह रही हूँ मैं यह ललकार॥
सभा में बैठे सब शास्त्रज्ञ
प्रतापी, सर्वश्रेष्ठ, गुणवान।
सभी मेरे गुरुजन, नीतिज्ञ
कह रहा दिग्-दिगन्त यश-गान॥
पूछती हूँ मैं केवल एक
प्रश्न, उसका उत्तर मिल जाय।
करूँगी फिर जो हो आदेश
बड़ों का वचन मान कर न्याय॥
प्रथम महाराज युधिष्ठिर मुझे
या कि थे गये स्वयं को हार।
स्वयं को यदि, तो उनको मुझे
हारने का था क्या अधिकार?
नहीं था यदि उनको अधिकार
हारने का मुझको, तो व्यर्थ
हो रहा क्यों यह वाद-विवाद
समझ पा रही नहीं मैं अर्थ।“
प्रश्न सुन सभी रह गये स्तब्ध,
हुए कुरु किंकर्त्तव्य-विमूढ़।
व्याप्त अन्तर में हलचल हुई,
धर्म का था रहस्य अति गूढ़॥
पराजित-से थे सब शास्त्रज्ञ,
उठीऊपर न किसी की आँख।
एक नारी अपने ही हाथ
धर्म का मोल रही थी आँक॥
गये कुछ पल-क्षण यों ही बीत
सभी थे मौन, न निकले बोल।
आज नारी ही नर का न्याय
रही थी धर्म-तुला पर तोल॥