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सत्य की जीत / भाग - 6 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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”उचित है प्रश्न तुम्हारा, किन्तु
धर्म के तत्व सूक्ष्म गम्भीर।
नहीं इनका विश्लेषण सरल;“
भीष्म बोले यों बुद्धि-प्रवीर॥

”जगत की देखी ऐसी रीति
कि जिसको कहें धर्म बलवान।
उसी को तर्क-पुष्ट कर और
लोग प्रायः लेते हैं मान॥

बात चाहे कितनी हो श्रेष्ठ
किन्तु यदि कहें व्यक्ति सामान्य।
कौन सुनता है उसको, और
किसे होती ही है वह मान्य॥

सभी कहते हैं तुमको आज
युधिष्ठिर गये जुए में हार।
किन्तु था उन्हें या नहीं, तुम्हें
दाँव पर रखने का अधिकार?

प्रश्न है यह अवश्य गम्भीर
कर रहा हूँ मैं स्वयं विचार।
पराजित हुआ स्वयं जो व्यक्ति
और पर उसका क्या अधिकार?

नहीं इतना ही; रहता नहीं
जब कि अपने पर ही अधिकार।
दाँव पर रख कर कैसे और
किसी को सकता है वह हार?

किन्तु पत्नी पति की अर्द्धांग
हमारी संस्कृति के अनुसार।
इसलिए है दोनों का एक
दूसरे पर सदैव अधिकार॥

हमारी परम्परा है यही
कि पति-पत्नी दोनों हैं एक।
इकाई जीवन की सम्पूर्ण
बिन्दु दो किन्तु एक ही रेख॥

द्यूतक्रीड़ा में शकुनि अजेय
गये सर्वस्व युधिष्ठिर हार।
कर चुके भरी सभा में स्वयं
तुम्हारी हार वही स्वीकार॥

युधिष्ठिर सत्यव्रती हैं, अटल,
छोड़ सकते वे सब साम्राज्य।
सत्य के लिए उन्हें है सदा
विश्व का अतुलित वैभव त्याज्य॥

चाहिए अतः उन्हें इस जटिल
प्रश्न का उत्तर देना तुम्हें।
शक्ति उनमें ही है जो पार
धर्म-संकट से कर दें हमें॥“

पितामह भीष्म हो गये मौन
व्यक्त कर यों गम्भीर विचार।
प्रश्न का उत्तर था अस्पष्ट
द्रौपदी बोली पुनः पुकार॥