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सत्य की जीत / भाग - 7 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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”युधिष्ठिर धर्मराज का हृदय
सरल-निर्मल-निश्च्छल-निर्दोष।
भरा अन्तर-सागर में अमित
भाव-रत्नों का सुन्दर कोष।

समझते वे, अपना-सा हृदय
लिये है यह समस्त संसार।
इसी से किया नियन्त्रण जुआ
खेलने को सहर्ष स्वीकार॥

कभी क्षीण भर भी सोचा था न
कपट का फैला होगा पाश।
एक भोले मानव ने किया
दूसरे मानव का विश्वास।

किन्तु मैं देख रही हूँ आज
स्वयं मानव अपने ही हाथ।
खो रहा है अपना विश्वास
अरे क्या यही प्रगति की बात?

सतत् बढ़ रहे हमारे चरण
समझते हम संस्कृति की ओर।
किन्तु ये घटनाएं ललकार
कह रहीं हम अवनति की ओर॥

पढ़े हम और बढ़े हम, सभ्य
समझता है हमको संसार।
मुसकरा कर नयनों से हमीं
बहाते जग में विष की धार॥

सरल-निर्मल अन्तर से बात
न कहने का हमको अभ्यास।
सरल-निर्मल अन्तर की बात
समझने का न हमें अवकाश॥

कहे यदि निर्मल अन्तःकरण
बात सीधी, फिर भी हम व्यर्थ।
कुटिल अपने स्वभाव से विवश
ढूंढ़ते उसमें अनगिन अर्थ॥

सत्य क्या है औ’ क्या है धर्म
नहीं हमको इसकी परवाह।
स्वार्थ-साधन हो जिससे वही
एक बस श्रेष्ठ हमारी राह॥

हृदय में भाव भरे कुछ और,
निकलते हैं मुँह से कुछ बोल।
बने फिर भी हम संस्कृत, सभ्य,
समय आँकेगा इसका मोल॥

युधिष्ठिर धर्मराज थे, सरल
सहृदय समझे न कपट की चाल।
स्वप्न में भी सोचा यह नहीं
बिछा होगा धोखे का जाल॥

सहज मानव-उर ने कर लिया
दूसरे मानव का विश्वास।
ज्ञात कब था मानव की देह
धरे आया था दानव पास॥

द्यूत-क्रीड़ा में निज सर्वस्व
युधिष्ठिर भले गये हों हार।
विवश होकर मेरी भी हार
उन्होंने कर ली हो स्वीकार॥

किन्तु क्या यही सत्य का रूप?
अरे क्या यही न्याय की रीति?
पूछती धर्मज्ञों से पुनः
कपट की या कि धर्म की जीत?“

द्रौपदी ने कर प्रश्न गंभीर
पाण्डवों को देखा भर दृष्टि।
उधर धुलती जाती थी बनी
कौरवों के स्वप्नों की सृष्टि॥

सभा में कुछ पल-क्षण के लिए
छा गया एक भयंकर मौन।
प्रश्न था ही कुछ ऐसा जटिल,
सहज ही उत्तर देता कौन?