सत्य की जीत / भाग - 8 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
”धर्म क्या है औ’ क्या है सत्य,
मुझे क्षण-भर चिन्ता इसकी न।
शास्त्र की चर्चा होती वहाँ
जहाँ नर होता शस्त्र-विहीन॥“
सभा के नीरव नभ में गूँज
गया दुःशासन-घन-रव घोर।
चकित औत्सुक्य-भरे तत्काल
नेत्र उठ गये सभी उस ओर॥
पुनः बोला दुःशासन गरज
”हमारा जीवन है संग्राम।
एक क्षण भर भी मिलता है न
यहाँ संघर्षों से विश्राम॥
शक्ति-बल जिनमें रहा न शेष
हो गया जिनका पौरुष क्षीण।
सतत् वे ही दुर्बल मस्तिष्क
शास्त्र-चर्चा में रहते लीन॥
भागते संघर्षों से दूर
श्रवण कर रणभेरी के गान।
शास्त्र की लेकर निर्बल ओट
बचाते हैं वे अपने प्राण॥
लिया दुर्बल मानव ने ढूँढ़
आत्म-रक्षा का सरल उपाय।
किन्तु जब होता सम्मुख शस्त्र
शास्त्र हो जाता है निरुपाय॥
शस्त्र के बल पर जो संघर्ष
किया करते वे ही रण-वीर।
वक्ष ताने कर लक्ष्य समक्ष
निडर बढ़ते जाते प्रण-वीर॥
खोल जीवन-पुस्तक के पृष्ठ,
मुसकराते, समरांगण बीच।
शस्त्र से लिख तू सच्चे शास्त्र
रक्त के स्वर्णिम अक्षर खींच॥
शस्त्र हो कहे वही है सत्य,
शस्त्र जो करे वही है कर्म।
शस्त्र हो लिखे वही है शास्त्र,
शस्त्र-बल पर आधारित धर्म।“
फड़कने लगे भीम के अंग
शस्त्र-बल की सुन कर ललकार।
नेत्र मुड़ धर्मराज की ओर
झुके, पी मौन रक्त की धार॥
खिला दुर्योधन का मुख-कमल,
शकुनि के अधरों पर विष-हास।
कर्ण ने कहा, ”दुःशासन धन्य
तुम्हारा तर्क और विश्वास।“
मौन रह सके न वीर विकर्ण
शास्त्र पर देख शस्त्र का वार।
हृदय सागर में उठने लगा
विचारों का, भावों का ज्वार-