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सदमे हज़ारों, रंजे-दिलो-जान थे बहुत / फ़रीद क़मर

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सदमे हज़ारों, रंजे-दिलो-जान थे बहुत
इस ज़िन्दगी से हम तो परेशान थे बहुत

जीने को इस जहाँ में बहाना कोई न था
हर-हर क़दम पे मौत के सामान थे बहुत

दुश्वार लग रहे थे जो चलने से पेश्तर
जब चल पड़े तो रास्ते आसान थे बहुत

जैसे हुआ निबाह दिया हमने तेरा साथ
वर्ना ऐ ज़िन्दगी! तेरे एहसान थे बहुत

इक जान और उस पे थीं सौ सौ सऊबतें
इक दिल था और हसरतो-अरमान थे बहुत

हर हर क़दम पे रंग बदलती थी इक नया
हम ज़िन्दगी को देख के हैरान थे बहुत