सदाओं का न ख़ला देख कर डरा मझ को / मनमोहन 'तल्ख़'
सदाओं का न ख़ला देख कर डरा मझ को
है कोई और भी सुनने तो दे ज़रा मुझ को
क़रीब अपने जो आया तो लड़खड़ा सा गया
तू मेरी फ़िक्र न कर कुछ नहीं हुआ मुझ को
मैं बर्फ़ बेचने निकला भी तो हिमालय में
और उस के बाद ज़माने से है गिला मुझ को
ये कैसे दर्द हैं जो रह गए हैं बटने से
ये कैसी गूँज है कुछ भी नहीं मिला मुझ को
मैं देख कर तुझे इक सम्त हो सा जाता हूँ
ये मिलते मिलते परे कैसे कर दिया मुझ को
न तू बुलाए मुझे और न मैं बुलाऊँ तुझे
ये क्या हुआ है तुझे और क्या हुआ मुझ को
ख़ला में रास्ते गिरते हों आबशार की मिस्ल
वो धूप हो नज़र आए न रास्ता मुझ को
मैं चुप की खाई का होता इक और पत्थर आज
मेरा सदा ही ने कस कर जकड़ लिया मुझ को
मैं ख़ुद को ढाल के तेरी सदा में चाहता हूँ
के तू भी अब कभी मेरी तरह बुला मुझ को
मैं क्या वो ख़ौफ़ हूँ जो सब के दिल में बैठा है
नहीं तो बुत से बने देखते हो क्या मुझ को
मैं एक शाम तेरे साथ रह के लुट सा गया
के ज़िंदगी कोई खड़ा देखता रहा मुझ को
फिर आज घर मुझे ले आई जूँ का तूँ इक बात
के जैसे कोई खड़ा देखता रहा मुझ को
उधर किनारे पे भी ‘तल्ख़’ में ही था कल शाम
बस अपने ख़ौफ़ ने मिलने नहीं दिया मुझ को