भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सदा हम जान से प्यारा ये हिन्दुस्ताँ समझते हैं / देवेश दीक्षित 'देव'
Kavita Kosh से
सदा हम जान से प्यारा ये हिन्दुस्ताँ समझते हैं
यहाँ हर एक ज़र्रे को भी*अपनी जाँ समझते हैं
कहाँ दंगे कराने हैं, कहाँ है आग लगवानी
हमारे देश में इसको सियासतदॉ समझते हैं
किताबें चंद पढ़ बेटे, शहर क्या घूम जो आये
न समझें बाप को कुछ भी न माँ को माँ समझते हैं
तुम्हें देखा नहीं है एक अरसा हो गया है अब
जुदाई के इन्हीं लम्हों को हम सदियाँ समझते हैं
कभी दिल टूटकर कोई दुबारा दिल नहीं रहता
दिलों से खेलने वाले कहाँ नादाँ समझते हैं
बहुत सालें गुज़रती हैं, शज़र को छाँव देने तक
मगर इस बात को कब सर-फ़िरे तूफां समझते हैं
कि जिनकी फ़ितरतो से 'देव' हमभी ख़ूब हैं वाकिफ़
हँसी आती है उन पर वह हमें नादाँ समझते हैं