सदी का आखिरी बुना हुआ स्वेटर / अशोक कुमार
वह माँ ही होगी
जो इस सदी में
बुन रही होगी स्वेटर
ऊन के लच्छे ला कर
उल्टे सीधे हाथों से
काँटों के नम्बर पहचान कर
बरसात के बाद ही
माँ पहचान लेती है
जाड़े की आहट
और लाती है खरीद कर
ऊन के लच्छे-
लाल
नारंगी
बैंगनी
सफेद
मैरून
और बेटे का कद आँखों में माप कर
बुनती है स्वेटर
और फिर गले और पीठ को
बार-बार नाप कर
फंदे उधेड़ कर
नये सिरे से जोड़ कर
पूरा करती है स्वेटर
गुलाबी जाड़ा आने तक
माँ जानती है
अब उसके बेटों को दिलचस्पी नहीं
हाथ से बुने हुए स्वेटरों में
और शायद अब वे रख देते होंगे उन्हें
ट्रंक में सहेज कर
और पहनते हैं
मिल के स्वेटर
फिर भी
माँ बुनती है हर साल स्वेटर
माँ दरअसल
बेटों के बड़े होते कदों के साथ
बुनती रही है स्वेटर
और शायद उनकी भूलना नहीँ चाहती
आकृतियाँ
इसलिये बुनती है स्वेटर
या फिर
माँ ने पाला है यह शगल
इसलिये भी कि
जब बरसात में भींगती हो उसकी आँखें
वह याद कर ले इस बहाने
बाहर रह रहे बेटों को
इसी बहाने
गुलाबी जाड़े के आने तक
माँ स्वेटर बुनने की सोच रही होगी
हर बरसात में सोचता हूँ मैं
एक माँ ही तो होगी
जो बुन रही होगी
बेटों के लिये
हाथ से बुना हुआ
इस सदी में
इस सदी का
आखिरी स्वेटर।