सदी का शाप / अमरेन्द्र
बस्ती-बस्ती डूब रही है भादो की नदियों में
खेत-राह का कहीं पता ना, वृक्ष कण्ठ तक डूबे
टूट गये हों गाँव-गाँव के शहर-शहर के सूबे
ऐसा कभी नहीं देखा था लोगों ने सदियों में ।
जलसमाधि का दृश्य विदारक बचे हुए ने देखा
भेंड़, बकरियाँ, गायें, भैंसें नदियाँ लील गईं सब
धरती या आकाश, मनुज का, जिसका भी हो करतब
कहीं नहीं थोड़े-से सुख की खिंची हुई है रेखा ।
दूतों की आशा में अकड़ी लाशें मुर्दाघर में
कंगूरे और दूर गगन पर दानों का भण्डारण
लहरों पर बहते लोगों पर छूट रहे हैं मारण
उड़नखटौला उड़ा रहा है देवदूत अम्बर में ।
यह अपना युग आदिम युग है विश्वग्राम में
कंकालों का कृष्ण योग है पुण्य धाम में ।