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सधी हुई उँगलियाँ / मिथिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सधी न हो उँगलियाँ तो खेल में फेंकी गई कौड़ियाँ हो जाती हैं लक्ष्यविहीन
सधी न हो उँगलियाँ
तो आदमी के चेहरे की जगह
गढ़े जा सकते हैं चेहरे राक्षस के
कैनवस पर कूची रच सकती है एक दृश्य संहार का
अनसधी उँगलियाँ लिखती हैं टेढ़े-मेढ़े अक्षर
खींचती हैं आड़ी-तिरछी रेखाएँ भाग्य की
अनसधी उँगलियाँ से टूट सकते हैं सितार के तार।
उँगलियाँ इतनी सधी भी न हों
कि काट ले दूसरों की जेब
दूसरों की भाग्य-रेखाएँ खरोंच दें।