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सनक जाने की ख़बर / शैलेन्द्र चौहान
Kavita Kosh से
मुड़ जाते हैं पैर
अर्धचंद्र की तरह
जैसे हो गया हो
नारू रोग
बोझिल होती ज़िंदगी
पनपती कुंठाएँ
टपकने लगता बुढ़ापा असमय
मन और शरीर से
कभी याद आती
बेतरतीब बातें
कभी भूलती
सुबह शाम की स्मृतियाँ भी
मन नही होता
कुछ करने का ठीक से
घर, बाहर अक्सर
हो जाती तकरार
खीझता है आत्मविश्वास
जब नही होती
सहजता संबंधों में
कभी किसी बात का
सहज कर लेता यकीन
कभी बात-बात मे टटोलता
कि सही क्या है
झिड़कता साथियों को
खीझता असमर्थता पर अपनी
कोसता ज़माने को
सनक गया है
कहते लोग अक्सर
चल देते मुँह फेरकर