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सन्त पड़ा कहना पापी हत्यारों को / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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सन्त पड़ा कहना पापी हत्यारों को
प्रहरी कहना पड़ा छली बटमारों को

सब्ज़बाग दिखला कर यूँ गुमराह किया
रहबर के हम समझे नहीं इशारों को

कश्ती को बेरहम किनारे ले डूबे
गुनहगार समझा सबने मझधारों को

प्यार जता कर लूटा चमन बहारों ने
जी भर कोसा गया मगर पतझारों को

लहरों का इस क़दर भरोसा कर बैठे
फेक दिया था हाथों से पतवारों को

पास चले आए गुलशन के फूल सभी
मीत बनाया जिस दिन हमने खारों को

नज़र सभी की दुलहन की डोली पर थी
ख़बर किसे? था कितना कष्ट कहारों को

दिलोजान से साथ निभाया मंजिल तक
कैसे बुरा बता दूँ मैं अंधियारों को

सावन के बादल बरसे कुछ खेतों में
रहे तरसते हम ठण्डी बौछारों को

ताक़तवर तलवार-क़लम दोनों लेकिन
देती आई मात क़लम तलवारों को