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सन्नाटे से बढ़कर बोली, सन्नाटों की रानी रात / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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सन्नाटे से बढ़कर बोली, सन्नाटों की रानी रात
संत्रासों की मूक चुभन को दे जाएगी बानी रात
दिन तो चुनेगा कंकर—पत्थर, फिर बच्चों के जैसे ही
और कहेगी कोई क़िस्सा, बन जाएगी नानी रात
सारी गर्मी कुछ लोगों ने भर ली अपने झोले में
अपने हिस्से में आई है ले—देकर बर्फ़ानी रात
हमने भी दिन ही चाहा था , हम भी लाए थे ‘सूरज’
जाने क्यों कुछ साथी जाकर ले आए वो पुरानी रात
जाने वो क्यों वो शहर में तब से, मारा—मारा फिरता है
यारो, उसने, जिस दिन से है , जाना दिन ,पहचानी रात
आँख में हो दिन का सपना तो आँखों में कट जाती है
‘द्विज’, कुछ पल की ही लगती है फिर तो आनी—जानी रात