भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपना / केशव मोहन पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमहूँ सपना देखेनी
सपनवे ओढ़ेनी
सपनवे बिछावेनी,
पेट के क्षुब्धा
सपनवे से मेटावेनी।
सपने से चलत सँसरी बा
जेकरा लगे सपना नइखे
ओकर जिनगी तऽ
जीअतके में फँसरी बाऽ।
हमरा लगे
झोरा भर के सपना बा
सपना के अंबार बा,
सपना नइखे तऽ
सब धूराऽ,
सपनवे से घर-संसार बाऽ।
सपना हऽ
बाबूजी के असरा के
माई के जोगावत रिश्तन में
मुस्कान के
आ दिदिआ के बजड़ी के,
चिरइया के
खुलल आसमान के
सपना हऽ अंर्धांगिनी के
लइकन के
दुअरा के बकरी के,
सपनवा तऽ हमरो बा
नून, तेल, लकड़ी के।
सपना
पढ़ाई के
लिखाई के
रिश्ता निभवला के
जोरन पेठवला के
कान में अँगुरी डाल
बिरहा गवला के
घर के
दुआर के
सोंझका ओरी के
सरकत लरही के,
सबके अँखिया में बसेला सपना
हाँड़ी पर चढ़त परई के।
खाली सुतले में मत देखीं
सपना-रोग के
दवाई के,
अँखियो उघार देखीं
सपना के सच्चाई के।
जो जी जान से जुगुत करेब तऽ
सगरो बिपत धूराऽ हो जाई,
तनी चाह के तऽ देखींऽ
राउर सगरो सपना
पूरा हो जाई।