भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपना / शंख घोष
Kavita Kosh से
|
ओ पृथ्वी !
अब भी क्यों नहीं टूटती
मेरी नींद
सपनों के भीतर
ऊँचे पहाड़ों की तहों से
झरती हैं पंखुरियाँ
झरती हैं पंखुरियाँ
पहाड़ों से
और इसी बीच
जाग उठते हैं धान के खेत
जब लक्ष्मी घर आएगी
घर आएगी जब लक्ष्मी
वे आएँगे अपनी बन्दूकें और
कृपाण लिए हाथों में, ओ पृथ्वी !
अब भी क्यों नहीं टूटती
मेरी नींद ।
मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल