भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपने-5 / सुरेश सेन निशांत
Kavita Kosh से
यह कैसी विडम्बना थी
अपने ख़रीदे हुए सपनों के संग
जीए जा रहे थे लोग ख़ुशी-ख़ुशी
एक बेचैनी में करवटें बदलते हुए
फिर भी आतताई थे चिंतित
कि कहीं दूर इसी धरती पर
किसी थके हुए आदमी की पसीने-भीगी नींद में
नित नए सपने ले रहे हैं जन्म
उनके लाख पहरों के बावजूद ।