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सपने बीजते हैं / भावना सक्सैना
Kavita Kosh से
सड़क किनारे
उग आई बस्तियों में भी
होते हैं वही सुख-दु: ख
सपने, आस-उम्मीदें।
आसमाँ को काटती
ईंटों पर धरी टीन
कतर नहीं पाती
पंख सपनों के।
टीन-तले पसरी भूमि
होती नहीं है परती।
उसमें गिरे स्वेद-कण
बीजते, पनप जाते हैं
बाँस के कोनों पर बँधे
तिरपाल की टप-टप से
नम भूमि में जन्म लेती है
असीम संभावनाएँ
झिंगोले में पड़े बूढ़े पंजर
होते हैं सपनों की कब्रगाह
आँखें मगर उलीच पाती नहीं
भविष्य की संभावनाएँ
अनकही दास्ताँ दर्द की
देती है दंश बार-बार
उफनते हैं सीने में
अधूरे ख्वाबों के खारे समंदर
मेहनतकश बाजुएँ
झोंक देती हैं जान,
हार जाती हैं अक्सर
करते बुर्जुआ बुर्जों का निर्माण।
फिर भी सपने बीजते,
पनपते रहते हैं
जीते रहने के लिए
हौसला मन को दिए रहते हैं।