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सपने / सरोज परमार
Kavita Kosh से
कुछ सपने टँक गए हैं
मस्तक की लकीरों में
और कुछ बेसुध हुए
फ़र्ज़ों की तदबीरों में
कुछ सपने फिसले गलियों में
कुछ व्यवस्था ने चुराए हैं
कुछ पल चल गया खंजर
कुछ कर्ज़ों में चुकाए हैं
कुछ सपने उँगली थामे
संग-संग अभी चल रहे हैं
दिल के दरीचों से कुछ
गुपचुप निकल रहे हैं
सपनों ने दस्तक दे दी है
बन्द हुए दरवाज़ों पर
सपनों का जादू चल निकला
कुन्द हुई परवाज़ों पर.