कौन आरोपित करता है
हमारी उनींदी आँखों में / इतने भयावह सपने
अवतरित होकर माता की कोख से
भोगते हैं प्रत्यक्ष में / संसार का जो क्रूर यथार्थ
उससे भी दो क़दम आगे बढ़कर
बुनता है जो हमारे सपने
आख़िर क्यों नहीं चाहता वह
कि कुछ पल के लिए भी लें हम
किसी भी संसार से असंपृक्त होकर / एक गहरी नींद?