भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपनों में / परितोष कुमार 'पीयूष'
Kavita Kosh से
दिन भर की थकान के बाद
जब आंखें बार-बार बंद करने पर भी
नींद नहीं आ पाती है
चुभती है सिलवटें बिस्तर की
घरियों की टिकटिक में
खतरों की दबी आवाज सुनाई देती है
मध्य रात्रि को खुली आँखों में
फिर वंचितों
और शोषितों के सपने आते हैं
उन दर्दनाक डरावने सपनों में
जानवरों के साथ आदमी
जूठे पत्तलों की छीना-झपटी करते
दिखाई पड़ते हैं
खैराती अस्पतालों में
बिना इलाज के दम तोड़ते गरीबों की
हुकहुकी सुनायी देती है
मानवी गिद्धों की झुंड में फँसी
बेवस, बेसहारा सन्नाटे को चीरती
उस किशोरी की चीख के साथ ही
आज फिर मेरी तंद्रा टूट जाती है
और सपने पखेरू हो जाते हैं
फिर सुबह सोचता हूँ मन ही मन
क्या ऐसे सपने सिर्फ मुझे आते हैं
जवाब की आशा में फिर रात हो जाती