भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपनों से बनते हैं सपने. / शम्भु बादल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम कन्धों-भर लाते हैं सपने
जंगल से
गाँव
शहर
नगर
महानगर
अन्तरिक्ष से

छाया में
धूप में, सूखाते हैं
पानी खिलाते हैं
जाड़ा सहाते हैं
सपने हो जाते हैं सीजण्ड

हम दुनिया को देखते हैं
सपनों के हाथ लिए
ज़मीन से
आकाश से
अँधेरे
उजाले में

हमारे सपनों से बनते हैं सपने
गली-गली
सपने रोप
ख़ुद भी
सपनों का जीवन बन
सपने बचा रखते हैं ।